Mujhe bhi kuch kehna hai
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ये कैसा अंधेरा हैं ?
जो इंसानियत के सूरज को ही निगल चुका हैं ,
रात के हर पहरे पर गिद्ध रुपी मानव का बसेरा हैं ,
कोई खून चूस रहा हैं ,कोई मांस खा रहा हैं ,
हड्डिया तक नहीं मिलती ,अंधेरा इतना गहरा हैं ,
भयावह हैं ,घातक हैं ,आत्मा के अंदर तक ,
स्याह हैं ,सब कुछ काला हैं …………………
पर दूर दिख रहा कहीं एक नन्हा सा उजाला हैं ,
एक उम्मीद हैं ,,,,,,,एक आशा हैं ,,,,,,,,,,,,,,
ये सच हैं ,,,
अंधेरे को चीरने के लिए एक लौ ही काफी हैं ,,,,
यहाँ तो हजारे संग लाखों दीये जल चुके हैं ,,,,,,
हथेली पर आग तो जला ली ही हैं हमने ,,
वक़्त आया तो कफ़न बांध ,मशाल भी उठा लेंगे .
अंधेरा कितना भी गहरा हो ,,,,,,,मानव ठान ले तो ,
आसंमा के गर्भ से ……..सूरज निकाल ही लेंगे ……[[
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