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” रचनाकार … ये क्या रचा तूने ? “

Mujhe bhi kuch kehna hai
Mujhe bhi kuch kehna hai
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गंगा के तट पर बसा एक गाँव … गंगा की बहती पवित्र धारा और उसके किनारे बसा प्राचीन काल का विशाल कृष्ण मंदिर I मंदिर का विशाल परिसर और उस परिसर के चबूतरे पर बची खुची जिंदिगी की खाली गुद्दर गठरी को समेटे “वो” कभी इधर कभी उधर भटकती सी ! नाम कोई नहीं जानता , पहचान – एक चोर की माँ … सालों पहले इसी गाँव में कभी वो बहु बनकर आई थी … ब्राह्मण खानदान की बहु- बेटी होने का गौरव … अतिरूपवती i उसके रूप और रंग की चर्चा ने गाँव भर की फ़िज़ा में एक अलग ही रंग भर दिया था …. विधाता ने वक़्त निकाल कर गढ़ा था उसका रूप-रंग और भाग्य … सात बेटे और एक बेटी को जनने के बाद उसके भाग्य से कोई प्रतिस्पर्धा कर सकता था भला ?? किन्तु भाग्य को अगर भाग्य ही धोखा दे दे तो…?
पति का स्वर्गवास क्या हुआ , लड़िया खुशियों की टूट कर बिखरने लगी , चूड़ियों के टूटे काँच चुभने लगे , मांग की लालिमा तो सूर्यास्त की लालिमा ही बन कर रह गयी , हर तरफ अंधेरा ही अँधेरा…
अँधेरे का पहला पहर गरीबी के रूप में दस्तक दे चुका था … सारे बच्चे छोटे थे , आमदनी का ज़रिया पति के साथ ही दाह हो चुका था , वैधव्य के साथ-साथ गाँव में फैले भीषण हैज़े ने तीन पुत्र और एक बेटी को निगल कर ममता के आँचल को भी लहुलुहान कर दिया …. आह ! विधाता तेरी क्या लीला … ? भूख की तपिश ने आंगन की ड्योढ़ी को लांघने पर विवश किया और वो बेचारी घर-घर का जूठा-बर्तन मांज कर ज़िन्दगी की दोपहर में ज़िन्दगी जीने को निकल पड़ी …..
बच्चे बड़े होते गए … बड़े बेटे की आकांक्षा ने इस कदर उड़ान भरी की वो एक चोर बन गया , रेलगारियों में चोरी करना उसका पक्का पेशा बन गया , फिर तो घर और जेल उसकी नियति बन गयी और वो विधवा ब्राह्मणी ” चोर की माँ ” की उपाधि से विभूषित हो गयी I
दूसरा बेटा गाँव में आये सन्यासियों की टोली के साथ भाग गया , पता नहीं योग के लिए या भोग के लिए , कभी वापस ना आया ……. अब उसके सात बेटों में सिर्फ दो बच गए … एक बेटा रिक्शा चलाकर अपना पेट पालने लगा पर हाय रे बीड़ी और गांजे की लत … वो भी टी.बी का शिकार होकर अपनी माँ पर ही बोझ बन बैठा … Old-Woman-with-a-Shawl-and-a-Walking-Stick[1]

अब उसकी नि: स्तब्ध आँखों का सहारा , उसका राजदुलारा , सबसे छोटा बेटा मदन ही उसका एकमात्र सहारा था , कलेजे से लगाये रहती थी वो उसको … उसके खुरदुरे हाथों की लकीरें शायद वही बदल सकता है इसी कामना में उस माँ की ज़िन्दगी यूँ ही वक़्त बिताये जा रही थी …. बेटा , कहीं कहीं मजदूरी करके अपनी माँ की मदद भी करने लगा था , कमाने लगा था , माँ की आँखों की आस बढ़ने लगी थी , वक़्त के लम्बे अंतराल में उस औरत ने सिर्फ खोया ही तो था , अब पाने की चाह मन में अंगड़ाई लेने लगी थी पर ……… हाय रे भाग्य !!
 
विधाता का अंतिम प्रहार अभी बाकी था ….. गलत संगत में पड़कर वो बेटा भी बिजली के तार की चोरी में पकड़ा गया और फिर तो वो बूढी औरत और थाने-कचहरी की दौड़ … बदहवास सी कभी यहाँ दौड़ती कभी वहाँ …. कभी इसके पैर पड़ती कभी उसके …. माँ की ममता और उसकी आंसू का ही असर था कि गाँव के एक बड़े आदमी ने बेटे कि बेल करा दी …. वो छूट गया लेकिन कुछ ही दिनों बाद लापता हो गया …. एक महीने बाद उसकी लाश गाँव से दूर कही ज़मीन के अन्दर धंसी मिली , पता चला वो किसी बड़े गैंग के लिए काम करता था .. गैंग वाले खुद न फंसे इसलिए उसे मार डाला …
उस बूढी ब्राह्मणी के जीवन में अंधेरे का यह गहन पक्ष था … हर तरफ कालिमा ही कालिमा थी … न आंसू थे , न भाव … सब कुछ शून्य था … गाँव में दहशत थी .. भाग्य कि विडम्बना से हर कोई हतप्रभ था … उस औरत के हाथ में बस अपने बेटे कि तस्वीर थी और होठों पर बस एक वाक्य चिपक कर रह गया था ” मेरे बेटे मदन को कहीं देखा है ? ” …सालों से प्रताड़ित मन अपना संतुलन खो चुका था …….
सालों बाद इस बार मायके जाने का अवसर मिला तो कृष्ण मंदिर दर्शन हेतु जाने की उत्कंठा हुई … परिसर में कदम रखते ही दूर चबूतरे पर सफ़ेद साड़ी में लिपटी एक पोटली सी आकृति सोई दिखी … मैंने अपनी भाभी से पूछा भाभी वो कौन ?
उन्होंने कहा .. अरे वो … वो तो काकी हैं झुना माई काकी … बचपन से सुनती आ रही उनकी कहानी मेरे मानसपटल पर पसीने की बूँद की तरह छलछला उठी , मैं करीब गयी , जाकर चरण-स्पर्श किया , स्पर्श की सिहरण से वो जागी , मोतिया बिन्द से भरभराई आँखों से उन्होंने मुझे देखा … कभी एक वक़्त था जब मेरी शादी में अपने सधे हाथों से सारा काम करती वो हमें एकटक स्नेह भरी आँखों से देखा करती थी … आज २२ वर्ष बाद निष्प्राण सी उन आँखों में अजनबी भाव लिए उन्होंने बस इतना कहा …. ” मदन को कही देखा है ? ” हाय रे विधाता … ये क्या रचा तूने … इतना वीभत्स हश्र ….. !!!!!

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